SRI MAHARSHI DADHICHI

महर्षि दधीचि की कथा (मिश्रित तीर्थ MISHRIT TIRTH)

।।ॐ श्री महर्षि दधीचि देव्ये नमः।।

मिश्रित तीर्थ MISHRIT TIRTH


प्रस्तावना

         भारतवर्ष जो धार्मिक सांस्कृतिक पौराणिक और विश्व की सबसे पुरानी विकसित सभ्यताओं का देश है यहां पर हजारों ऋषि-मुनियों ने तपस्या करके अनेक धार्मिक एवं आध्यात्मिक साहित्यों का निर्माण किया है, इन साहित्य में विश्व कल्याण के लिए अनेक मूल् मंत्रों का व्याख्यान किया गया है आज दुनिया भर के लोग हमारे सांस्कृतिक,पौराणिक व आध्यात्मिक मान्यताओं के बारे में शोध करने भारतवर्ष में आते हैं भारत में हजारों ऐसे प्राचीन मंदिर और स्थान हैं जिनके रहस्य आज तक लोगों में कौतूहल का विषय हैं।

        इसी भारतवर्ष में हजारों ऋषि मुनि हुए हैं जिनके त्याग व तपस्या की कथाएं यहां पर मौजूद हैं उन्हीं कुछ कथाओं के बारे में हम आप सभी को परिचय करवाने के उद्देश्य से आपके समक्ष "देवज्ञानम"वेबसाइट के माध्यम से आपके समक्ष लाए हैं।

इस "देवज्ञानम"वेबसाइट पर आप भी अपने आस पास के धार्मिक और सांस्कृतिक व पौराणिक स्थानों के बारे में हमें उनके फोटो वीडियो व उनके बारे में लिखकर भेज सकते हैं जिससे उनके बारे में जानकारी सभी लोगों तक पहुंच सके।

            हमारा यह छोटा सा प्रयास आपके आशीर्वाद से अग्रसर होता रहेगा।

        हमारी लेखनी में अगर कोई भी त्रुटि हो तो हमें अपना अनुज समझ कर क्षमा कीजिएगा एवं हमें मार्गदर्शन करते रहिएगा हम आपसे यही आशा करते हैं, हमें सदा आपके आशीर्वाद की आकांक्षा रहेगी।

        इसी श्रंखला में हम सर्वप्रथम अपनी जन्मभूमि और श्री महर्षि दधीचि जी व 88000 ऋषियों की तपोभूमि मिश्रित तीर्थ की पौराणिक कथा को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।

 महर्षि दधीचि जी


        महर्षि दधीचि जी जिनका त्याग अद्वितीय है जिन्होंने लोक कल्याणार्थ अपने शरीर का दान दिया था, दधीचि जी के अनुरोध पर ही 33 कोटि देवता व 88000 ऋषि मुनि यहां पर एकत्रित हुए।

        फाल्गुन मास में 84 कोशीय परिक्रमा इन्हीं ऋषि-मुनियों देवताओं के एकत्र होने की परिधि है हम उसी की परिक्रमा करते हैं इस परिधि में आने वाले पड़ाव जहां पर रात्रि विश्राम किया गया था उसका भी संक्षिप्त वर्णन भी हम करेंगे।

शरस्वेत तीर्थ की कथा

        आदि सतयुग में राष्ट्र निर्माता ब्रह्मा जी ने एक समय अपने विभिन्न अंगों द्वारा दैहिक पुत्र उत्पन्न किए जिसमें ब्रह्मा जी के हृदय से दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम भृगु व अथर्वा था अथर्वा जी से भाद्र मास शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को एक तेजस्वी पुत्र की उत्पत्ति हुई उस पुत्र का नाम दधीमती के आशीर्वाद से दधीचि पड़ा।

       मिश्रित तीर्थ का नाम पूर्वकाल में शरस्वेत सरोवर था। इसी सरोवर के तट पर दधीचि जी अपनी पत्नी गाभिस्थिनी के साथ तपस्या करते थे।

शरस्वेत तीर्थ की उत्पति की कथा।

        एक समय त्रिपुरासुर नामक एक महाबली दैत्य की उत्पत्ति हुई उसने इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर इंद्रासन पर अपना अधिकार कर लिया एवं देवताओं का उत्पीड़न करने लगा तब देवगण त्रिपुरासुर के त्रास से दुखी होकर भगवान शिव की आराधना कर शिवजी को त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिए उद्यत किया शिव जी का व त्रिपुरासुर का संग्राम दस सहस्र वर्षों तक चला उस युद्ध में एक समय शिवजी के वाहन श्री नंदेश्वर जी तृष्णा से व्याकुल होकर कापने लगे जब शिवजी को नंदेश्वर जी के त्रसित होने का ज्ञान हुआ तब शिवजी ने धनुष लेकर शर से पृथ्वी का भेदन कर जल का उदय किया उस जल से नंदेश्वर जी ने अपनी पिपासा शांत की और पुनः पूर्ण शक्ति के साथ उस युद्ध में योगदान दिया।शिव जी ने उस युद्ध में त्रिपुरासुर का वध करके देवताओं को पुनः स्वर्ग में प्रतिस्थापित किया।

शिव जी के द्वारा शर से पृथ्वी से श्री नंदेश्वर जी हेतु निकली जलधार से निर्मित सरोवर का निर्माण हुआ इसीलिए इस सरोवर का नाम शरस्वेत तीर्थ पड़ा।

    इस परम पावन शरस्वेत के तट पर महर्षि दधीचि पत्नी गभिस्थिनी के साथ आश्रम में रहते थे।

        एक समय राजा छुआ की भक्ति भावना से वशीभूत होकर भगवान विष्णु दधीचि से युद्ध भावना लेकर आश्रम पर पधारे और युद्ध किया । यह सुनकर माता पार्वती बोली हे प्रभु! मुझे आश्चर्य है कि कौन सी स्थिति उत्पन्न हुई कि ब्रह्मा भक्त ब्रम्हर्षि दधीचि से युद्ध के लिए भगवान विष्णु उद्यत हुए, हे त्रिपुरारी यह चरित्र कृपा करके हमें सुनाएं।

           यह सुनकर शशिधर भगवान शंकर बोले हे उमा! एक समय की बात है श्री महर्षि दधीचि अपने परम प्रिय मित्र राजा छुआ से वार्ता कर रहे थे, वार्ता का प्रसंग बदलकर इस विषय पर पहुंच गया कि ब्राह्मण श्रेष्ठ है या क्षत्रिय, राजा छुआ  का कहना था कि द्विजों में क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं वह ब्राह्मण सहित सभी का पालक और रक्षक होता है श्री महर्षि दधीचि का कथन था कि शत्रु रक्षा पालन का कार्य जिस व्यक्ति के द्वारा संपादित करता है वह शक्ति क्षत्रियों को ब्राह्मण प्रदान करता है इस प्रसंग में कटुता उत्पन्न हुई और राजा छुआ ने क्रोधित होकर दधीचि पर प्रहार कर मूर्छित कर दिया जब दधीचि मूर्छित हो गये तो दधीचि को मूर्छित छोड़ राजा छुआ चले गए। जब दधीचि मूर्छित अवस्था में पड़े हुए थे तभी वहां दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जी निकले दधीचि जी को मूर्छित देख उन्होंने अपने प्रयासों से उन्हें चैतन्य किया और दधीचि के मुख से मूर्छित होने का सारा प्रसंग सुनकर उन्हें मेरी आराधना का उपदेश और संजीवनी विद्या का ज्ञान देकर चले गए।

        श्री दधीचि ने एकाग्रचित्त होकर मेरी आराधना की जिससे प्रसन्न होकर मैंने दधीचि के शरीर को वज्र तुल्य बना दिया, अब दधीचि के शरीर पर किसी भी प्रकार के शस्त्र प्रहार का प्रभाव नहीं पड़ सकता था।

          कुछ समय बाद राजा छुआ और श्री दधीचि जी की भेंट हुई तो राजा छुआ ने दधीचि से कहा कि अब तो आप इस बात को स्वीकार करेंगे कि क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं क्योंकि मैं तुम्हें पराजित और मूर्छित कर चुका हूं और मैं क्षत्रिय हूं, इस बात को सुनकर दधीचि जी ने नम्र भाव से कहा हे राजन! मैंने तब स्वीकार किया था और ना अब कि क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं मैं अपनी पूर्व बात पर अभी भी दृढ़ हूं। यह सुनकर राजा छुआ क्रोधित होकर दधीचि पर प्रहार करने लगे जो निष्फल हो जाते थे ,राजा छुआ अपने प्रहार निष्फल जाते देखकर मूर्छित हो गए, राजा छुआ को कुछ समय बाद चैतन्यता आई तो दधीचि को देख भयभीत होकर भागे और प्रतिशोध की भावना से पीड़ित रहने लगे तत्पश्चात उन्होंने भगवान विष्णु की महान आराधना की जिससे प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुये तो राजा छुआ से दधीचि जी से विवाद की कथा सुनकर भगवान विष्णु ने कहा हे राजन! ब्राह्मणो से द्वैष उचित नहीं है इसे स्वीकार कर शान्ति ग्रहण करो परन्तु राजा छुआ न माने और विष्णु से कहा कि आप दधीचि से स्वयं युद्ध करें, आराधना के वशीभूत होकर भगवान विष्णु छद्म वेश में श्री दधीचि के आश्रम पर पहुंचे दधीचि ने अपने तप बल से भगवान विष्णु को पहचान कर कहा हे भगवन! आप मेरे आश्रम पर छद्म वेश धारण कर युद्ध की इच्छा से अतिथि रूप में पधारे हैं इसलिए मैं आपकी इच्छा का अनादर नहीं करूंगा अपनी शक्ति का परीक्षण अवश्य करें, भगवान विष्णु और दधीचि का युद्ध हुआ, भगवान विष्णु अपनी सेना सहित प्रहार करने लगे जो आसन पर बैठे दधीचि पर निष्फल हो जाते थे जब संध्या वंदन का समय आने लगा तो दधीचि ने अपने कुश आसन से कुशाग्र तोड़ देव सेना की ओर फेंका जिससे देवसेना जलने और भागने लगी हाहाकार मच गया यह देख राजा छुआ को ज्ञान प्राप्त हुआ कि वास्तव में ब्राह्मण श्रेष्ठ और शक्तिशाली है। उन्होंने अहं को छोड़ भगवान विष्णु से युद्ध रोकने और दधीचि को प्रणाम कर कुशाग्र को वापस बुलाने की प्रार्थना की , उनकी प्रार्थना को दधीचि जी ने स्वीकार की। भगवान विष्णु भी दधीचि की ब्रह्म शक्ति को प्रणाम कर नारायण कवच प्रदान कर बैकुंठ को चले गए।

        देवसेना सहित भगवान विष्णु द्वारा दधीचि पर प्रहार एवं दधीचि के कुशाग्र फेकने से देव सेना में जो हाहाकार हुआ उसे देवराज इंद्र व्योम से देख रहे थे, जब भगवान विष्णु नारायण कवच प्रदान करके चले गए तो देवराज इंद्र ने दधीचि के समक्ष आकर प्रणाम करके कहा हे ब्रह्मर्षि मैं तुम्हारे सदाचार से प्रसन्न होकर तुम्हें मधुविद्या का गुप्त ज्ञान प्रदान करता हूं परंतु स्मरण रहे यह ज्ञान तुम्हारे तक ही सीमित रहना चाहिए यदि तुमने किसी को इस विद्या का ज्ञान कराया तो तुम्हारा सिर काट लिया जाएगा।

        ऋग्वेद प्र. . सू. 196-923 के अनुसार मधु विद्या का ज्ञान देकर इंद्र अपने धाम चले गए। कालांतर में लोक हितार्थ अश्विनी कुमारों ने दधीचि से मधु विद्या का ज्ञान देने की प्रार्थना की तो कोमल ह्रदय श्री दधीचि अश्विनी कुमारों की प्रार्थना अस्वीकार कर सके उन्होंने अश्विनी कुमारों से अपना सिर कटवाकर उसे सुरक्षित करवा कर अपने शरीर पर अश्व का सिर लगवाकर हयसिर द्वारा अश्विनी कुमारों को मधु विद्या का ज्ञान दिया यह समाचार जब इंद्र को ज्ञात हुआ तो इंद्र ने दधीचि के शरीर पर लगे हैं सिर को काट डाला अश्विनी कुमारों ने सुरक्षित रखा दधीचि जी के सिर को लगाकर दधीचि को पुनः जीवित कर दिया। इसी से दधीचि का नाम अश्वशिरा भी विदित हुआ । इन्हीं अश्वशिरा नामधारी दधीचि के पास देवगणों सहित देवराज इंद्र को वृत्तासुर नामक राक्षस को वध करने के लिए अस्थिदान मांगने जाना पड़ा।

        यह सुनकर शिवा बोली हे प्राणनाथ! यह वृत्तासुर कौन है जिसके त्रास से भयभीत इंद्र हुए उन्हें दधीचि जी से उनकी अस्थियों की याचना करनी पड़ी कृपया इस प्रसंग को सुनाएं।

            यह बात सुनकर भगवान शंकर बोले कि है पार्वती!, एक समय की बात है देवताओं के गुरु बृहस्पति जी महाराज इंद्र से कुछ असंतुष्ट होकर देवलोक का त्याग कर कहीं अन्यत्र चले गए जिससे इंद्र की शक्ति क्षीण होने लगी, यह समाचार जब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य जी को ज्ञात हुआ तो उन्होंने दैत्यों को देवलोक के ऊपर चढ़ाई करने के लिए उद्यत किया। गुरु विहीन क्षीण शक्ति वाले देवराज इंद्र दैत्यों से युद्ध हार गए दैत्यों से पराजित होकर इंद्र ब्रह्मा के पास जाकर अपनी पराजय का कारण पूछा तो ब्रह्मा जी ने बताया तुम्हारी पराजय गुरु के अभाव के कारण से हुई है, जब तक पुनः गुरु अपना स्थान ग्रहण नहीं करेंगे आप दैत्यों पर विजय नहीं प्राप्त कर सकोगे यह सुन कर  इंद्र ने कहा कि मैंने गुरु बृहस्पति जी की बहुत खोज की परंतु वह नहीं मिले हे प्रभु! अब हमें आप कोई दूसरा उपाय बताएं यह सुनकर ब्रह्माजी बोले देवराज इंद्र गुरु बृहस्पति जी नहीं मिल रहे हैं तो आप दूसरा गुरु कर ले तभी आप दैत्यों से जीत सकेंगे। यह सुनकर इंद्र ने ब्रह्माजी से गुरु पद ग्रहण करने की प्रार्थना की जिसे ब्रम्हा जी ने स्वीकार करके त्वष्टा ऋषि के पुत्र विश्व स्वरूप जी को गुरु बनाने का परामर्श दिया जिसे सुनकर देवराज इंद्र विश्व स्वरूप जी जिनके तीन मुख थे एक मुख से मदिरा दूसरे मुख से वायु ग्रहण करते थे और तीसरे से वेद मंत्रों का उच्चारण करते थे ऐसे विश्व स्वरूप जी के पास जाकर गुरु पद ग्रहण करने की देवराज इंद्र ने प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार करके इंद्र को दीक्षित किया। इंद्र गुरु को पाकर पुनः शक्तिशाली होकर दैत्यों को पराजित किया।  देवों के गुरु के पद पर होने से यज्ञों में भाग देने का कार्य भी विश्व स्वरूप जी संपन्न करते थे।

        दिति, अदिति सहोदर भगनियो के उदरों से देव व दनुजों का जन्म हुआ अदिति ने अपने पुत्र दैत्यों की दीनहीन दशा देखकर मातृप्रेम से वशीभूत होकर एक समय विश्व स्वरूप जी के पास जाकर कहा हे पुत्र! मैं तुम्हारी माता के समान तुम्हारी मौसी हूं और तुम्हारे भाई दैत्यों के लिए याचना करने आई हूं कि यज्ञ क्या कुछ अंश अपने निर्बल दुखी भाइयों के लिए भी निकाल दिया करो यह सुन विश्व स्वरूप जी ने विचार किया कि मां सदृष्य मौसी निर्बल बंधुओं की सहायता याचना लेकर आई है सहायता करने से मुझे मात के अपमान का पाप लगेगा इसलिए उन्होंने यज्ञ में आहुति देते समय जो अंश यज्ञ कुंड के बाहर भूमि पर गिर जाता है उसे यज्ञ उपरांत दैत्यों को देना स्वीकार कर लिया जिससे दैत्यों को जो कुंड के बाहर गिरी हुई शाकल्य मिलने लगी और अदिति प्रसन्न होकर आशीर्वाद देकर चली गई, देव गणों को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्हें विश्वरूप जी का यह कार्य नहीं भाया और उन्होंने देवराज इंद्र के पास जाकर कहा हे देवराज आपका गुरु बड़ा अनर्थकारी है यह आपके शत्रु दैत्यों को यज्ञ में अंश देता है यह सुनकर इंद्र क्रोध में आकर विश्व स्वरूप जी का सिर काट डाला।  हे पार्वती ! विश्व स्वरूप जी के संहार का समाचार जब त्वष्टा ऋषि के आश्रम में पहुंचा उस समय त्वष्टा मुनि यज्ञ आहुति दे रहे थे पुत्र के वध का समाचार सुनकर ध्यान बट जाने से मंत्रों का उच्चारण अशुद्ध हो गया परिणाम स्वरूप उस यज्ञ से एक विकराल दैत्य प्रकट हुआ जिसका नाम वृत्तासुर पड़ा उस दैत्य से त्वष्टा ऋषि ने कहा हे पुत्र! तुम जाकर अपने भ्रात हंता इंद्र को अपने गुरु विश्व स्वरूप जी का वध करने के बदले वध कर डालो तुम्हें कोई मार नहीं सकेगा तुम्हारी मृत्यु केवल वज्र द्वारा ही हो सकेगी और वज्र दधीचि द्वारा नष्ट हो चुका है। यह सुनकर वृत्तासुर घन गर्जन करता हुआ इंद्रपुरी की ओर दौड़ा उसके मार्ग में जो देवसेना अवरोध उत्पन्न करती उसका संहार करता जब यह समाचार इंद्र को ज्ञात हुआ तो इंद्र इंद्रासन छोड़कर भयभीत होकर भागे ।

                पार्वती जी बोली हे प्रभु ऋषि दधीचि के पास वज्र कैसे पहुंचा, उन्होंने इसे क्यों नष्ट कर डाला है कृपा करके यह प्रसंग हमें बताएं।

            शिव जी बोले, एक समय मैं और इंद्र, विष्णु, यम, अग्निदेव, अश्विनी कुमार आदि देव, दैत्यों को पराजित कर लौटते समय ऋषि दधीचि के आश्रम पर पहुंचे ऋषि दधीचि ने सभी को यथा योग्य आसन सत्कार देकर कहा हमारे योग्य जो सेवा हो उसे कहें तो देव गणों ने कहा हे ऋषेश्वर! दैत्यों को पराजित करने वाला हमारे पास एक दिव्य अस्त्र- वज्र है यह मैं आपके आश्रम में रखना चाहता हूं दैत्यों में अब युद्ध करने की क्षमता नहीं है और निष्प्रयोजन इन अस्त्रों को साथ में नहीं रखना चाहते। श्री दधीचि की आज्ञा से वज्र अस्त्र को आश्रम में छोड़ देवगण चले गए ।  दस सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के बाद भी जब कोई देवता उसे लेने नहीं आया तब दधीचि जी ने सोचा कि अगर हमारी ध्यानावस्था का लाभ उठाकर कोई अनाधिकारी हांथ इन्हे प्राप्त कर लेगा तो बड़ा अनर्थ हो सकता है, इसलिए दधीचि ने उस अस्त्र की शक्ति को मंत्रों द्वारा आचमनी के जल में उतारकर पी डाला जिससे अस्त्र शक्ति हीन हो स्वतः नष्ट हो गया।

            उधर यज्ञ से उत्पन्न वृत्तासुर त्वष्टा ऋषि की आज्ञा पाकर देवलोक पहुंचा देवगण युद्ध में टिक सके और देवलोक छोड़ इंद्र सहित भागकर ब्रह्मा जी की शरण में आकर कहा हे प्रभु त्राहिमाम वृत्तासुर दैत्य से युद्ध में कोई नहीं जीत रहा है उसकी मृत्यु का हमें कोई उपाय बताएं नहीं तो वह सभी देव समूह को नष्ट कर डालेगा यह सुनकर ब्रह्माजी बोले हे देवगणों वृत्तासुर की मृत्यु केवल वज्र द्वारा ही संभव है।  इतना सुनते ही इंद्र को पूर्व काल में श्री दधीचि आश्रम में छोड़े गए अस्त्रों का स्मरण हुआ तब सभी देवगण ऋषि दधीचि आश्रम पर पहुंचकर ऋषि का अभिवादन करके वज्र की याचना की तब श्री दधीचि  जी ने कहा कि देवगणो जब आप सब दीर्घावधि तक उन अस्त्रों को लेने नहीं आए तो इस भय से कि कहीं कोई अनाधिकृत रूप से उसे हस्तगत कर ले मैंने उन अस्त्रों की शक्ति को पी डाला जिससे वह अस्त्र स्वतः नष्ट हो गया इतना सुनते ही देवगण चिंतित होकर कहा हे ऋषि! उस वृत्तासुर का वध वज्र से ही संभव है और उसकी शक्ति अब आपकी अस्थियों में समाहित हो गई है अब सिर्फ आपकी अस्थियों से वज्र का पुनः निर्माण कर वृत्तासुर का वध किया जा सकता है अतः आपसे विनती है कि आप अपनी अस्थियां हमें दान दे दें।

            यह सुनकर महर्षि दधीचि जी बोले अहोभाग्य जो देवगण हमारी नश्वर अस्थियों की याचना कर रहे है मैं अवश्य जन कल्याणार्थ अस्थि दान करूंगा परंतु मै इससे पूर्व मै त्रैलोक के सभी तीर्थों का स्नान एवं देव दर्शन का संकल्प ले चुका हूं, मैं तीर्थाटन को जा रहा हूं वापस आकर अवश्य अस्थिदान करूंगा। यह सुनकर देवगण बोले हे ॠषेश्वर आपको तीर्थाटन में ज्यादा समय लगेगा अतः हम आपके सम्मुख ऐसी प्रार्थना करते हैं जिससे तीर्थाटन देव दर्शन का आप का संकल्प तथा वज्र हेतु आप की अस्थियां प्राप्त करने को मेरी साधना शीघ्र पूर्ण हो सकेगी मैं देव तथा ऋषियों का आवाहन करके सभी तीर्थों को आमंत्रित करके अपने साथ लाने हेतु त्रैलोक को भेज रहा हूं सभी तीर्थ एवं देव आपके आश्रम पर आकर एकत्र होंगे आप स्नान दर्शन के पश्चात अस्थि दान कर दें जिसकी दधीचि जी की स्वीकृति मिलने पर सभी ऋषि देव अपने अपने कमंडलों में त्रेलोक के सभी साढे तीन कोटि तीर्थ भरकर सादर ले आए, श्री प्रयागराज के आने पर ऋषि देवों ने देवप्रयाग तीर्थ की रचना कर उसका जल प्रयुक्त किया और इस प्रकार साढ़े तीन कोटि तीर्थ तैंतीस कोटि देवता अट्ठासी सहस्र ऋषि इस अरण्य में एकत्र हुए। सभी के एकत्र हो जाने का समाचार जब सप्त ऋषियों ने दधीचि को दिया तो श्री दधीचि ने कहा कि अब मैं इन एकत्र तीर्थ देव ऋषियों की प्रदक्षिणा कर तीर्थाटन का पूर्ण लाभ उठाकर स्नान करके अस्थिदान करूंगा।

            इतनी कथा सुनकर उमा बड़ी प्रसन्न हुई और बोली हे प्रभु यह कथा तो बड़ी मनोरम सुख देने वाली है अब आप दधीचि ने किस प्रकार तीर्थाटन परिक्रमा कर देव दर्शन किए और किस प्रकार मिश्रित तीर्थ की उत्पत्ति हुई और किस प्रकार अस्थिदान किया कृपा करके सुनावे

            यह सुनकर भगवान शंकर बोले हे पार्वती! फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को जब श्री दधीचि इस अरण्य में पधारे समस्त तीर्थों की प्रदक्षिणा को चलने को उद्यत हुए तो सभी देव ऋषि भी साथ होकर बोले धन्य हैं आप दधीचि जिन की कृपा से हम सभी तीर्थों की परिक्रमा का लाभ लेने आपके साथ चल रहे हैं ।

       दस दिवस में दस रात्रि मार्ग वास करके जितने क्षेत्र में त्रैलोक्य तीर्थ विद्यमान थे परिक्रमा पूर्ण कर एकादशी को शरस्वेत तट के आश्रम पर वापस आए, उन रात्रि विश्राम स्थलों का विवरण इस प्रकार है प्रतिपदा  कोरोवन (कोरोना), द्वितीया कैलाश आश्रम,हरिग्राम (हैरैया जिला हरदोई), तृतीया प्रभाष क्षेत्र हत्याहरण होकर कुस्थान (नगवा कोथावां जिला हरदोई) चतुर्थी को नेमिसज्जन तीर्थ स्नान कर औदुम्बर ग्राम (गिरिधरपुर उमरारी जिला हरदोई) पंचमी को शांख तीर्थ गंगासागर स्नान कर (साखिन गोपालपुर जिला हरदोई)  छठ को देवग्राम (देवगवां) सप्तमी को मंडरिक (मंदरुवा), अष्टमी हरिद्वार तीर्थ स्नान मधुक वृक्ष भेंटकर जलग्राम (जरिगवां) नवमी को कोटेश्वर नाथ (गया गजोधर गोमती तट नैमिषअरण्य) दशमी को चित्रकूट रात्रि वास कर मिश्रित आकर जितनी भूमि पर देवगण ऋषि गण बैठे थे प्रदक्षिणा की, अब पंचकोशी नगर प्रदक्षिणा करके शरस्वेत तीर्थ में स्नान कर उपवास रहकर भगवत भजन करते हुए रात्रि विश्राम किया द्वादशी को क्षौर करवाया क्षाद्ध  कर भगवत चर्चा करते हुए रात्रि विश्राम किया त्रयोदशी को ब्रम्हमुहूर्त में उठकर रात्रि देव प्रदक्षिणा कर उपवास कर गौधूलि वेला शरस्वेत के उत्तर में बृह्मनालेश्वर महादेव( उत्तरेश्वर नाथ, ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित ) पूर्व में गदाधर नाथ  दक्षिण में दधीचेश्चर  महादेव ( दक्षिणेश्वरनाथ, दधीचि जी द्वारा स्थापित ) शिवलिंगों की स्थापना कर षोडशो प्रकार पूजन करके मेरा ध्यान करते हुए रात्रि विश्राम किया चतुर्दशी को प्रातः उठकर देव प्रदक्षिणा स्नान दान भगवत भजन करते हुए रात्रि विश्राम की पूर्व बेला में देवगणों ने मंत्रणा की कि यह जो समस्त तीर्थों का जल महान परिश्रम से आया है वह इधर-उधर वह कर नष्ट हो इसलिए शरस्वेत सरोवर के आसपास वृहत रूप देखकर सभी देव गणों ने रात्रि भर में एक सुंदर सरोवर का निर्माण किया पूर्णिमा को हरि स्मरण करते हुए देव प्रदक्षिणा कर श्री दधीचि सरोवर के तट पर पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन से बैठ गए।

        ॠषि गण तीर्थ जलयुक्त कमंडल दधीचि को देते उस जल से दधीचि उस तीर्थ का नाम पूछते जल जब अपना नाम उच्चारित करता तब श्री दधीचि मुनि उसे प्रणाम कर स्नान करते जाते इस प्रकार दधीचि ने साढ़े तीन कोटि तीर्थों का स्नान किया। यह जल देवताओं द्वारा निर्मित सुंदर सरोवर में एकत्र हुआ इसके पश्चात देवगण आकर श्री दधीचि को दर्शन देने लगे जब दधीचि के सन्मुख भगवान विष्णु आए तो उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में महर्षि दधीचि से वरदान मांगने को कहा तब दधीचि ने कहा हे भगवान अब इससे अधिक और मेरे अहोभाग्य और मेरी अभिलाषा क्या हो सकती है कि आप स्वयं साक्षात मेरे सम्मुख उपस्थित हैं तब विष्णु जी बोले हे ऋषेष्वर त्यागी महान होता है परंतु मेरी भी मर्यादा है कुछ अवश्य मांग ले तब दधीचि ने कहा हे प्रभु यदि आपकी कुछ देने की अभिलाषा  ही है तो सुनो -जिस चतुर्भुज श्याम वर्ण शंख चक्र गदा पद्म कौस्तुभ मणि पीतांबर धारण किए हुए आप इस समय मुझे दर्शन दे रहे हैं इसी स्वरूप में मेरे आश्रम में आप की मूर्ति स्थापित हो और आप उस मूर्ति में सदैव आप वास करें तथा वह मूर्ति मेरे नाम से विख्यात हो यह सुनकर भगवान विष्णु ने तथास्तु कहकर स्वीकार किया जिसे सुनकर देव गणों ने जयनाद कर पुष्प वर्षा की।

        जब दधीचि देव दर्शन पश्चात अस्थिदान का संकल्प कर देवराज इंद्र को देने लगे तो देवराज इंद्र बोले हे महर्षि तुम्हारा दान अनूठा है इसकी कोई समता नहीं कर सकता अब आपकी जो इच्छा हो वह मांग लो तो दधीचि बोले कि मुझे कोई याचना नहीं करनी है यदि आशीर्वाद स्वरूप कुछ देने की इच्छा है तो सुनो जिस प्रकार फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मेरे साथ इस तीर्थ क्षेत्र में पधारे तीर्थों देवों की परिक्रमा ऋषियों युक्त आपने की है उसी प्रकार सदैव मेरे इस पावन अरण्य की परिक्रमा दस दिन आप अपने दल बल के साथ करें और पांच दिन मेरे आश्रम पर पधारें देव गणों की प्रदक्षिणा करते हुए विराजा करें एवं जिस प्रकार मैंने पूर्णिमा को समस्त तीर्थों का स्नान किया है वह पावन जल इस सरोवर में अमरत्व को प्राप्त हो गया है इसमें आप देवों के संयुक्त समूह के साथ पांच दिवस स्नान करते रहें इस सरोवर का नाम और इसमें स्नान का फल आप अपने मुख से कहें।

        यह सुनकर इंद्र बोले हे ऋषि इस पावन सरोवर में आकाश पाताल मृत्युलोक तीनों लोकों के साढ़े तीन करोड़ तीर्थों का जल मिला हुआ है अतः इस पावन तीर्थ का नाम मिश्रित तीर्थ है।


मिश्रित
तीर्थ

मिश्रित तीर्थ
मिश्रित तीर्थ


सीताकुण्ड मिश्रित 


ऋतु स्तम्भ ,सीताकुण्ड मिश्रित 

ऋतु स्तम्भ ,सीताकुण्ड मिश्रित 


सीताकुण्ड मिश्रित 
सीताकुण्ड मिश्रित 
नर्मदेश्वर महादेव मंदिर सीताकुण्ड मिश्रित 
नर्मदेश्वर महादेव मंदिर सीताकुण्ड मिश्रित 
नर्मदेश्वर महादेव मंदिर सीताकुण्ड मिश्रित 
नर्मदेश्वर महादेव मंदिर सीताकुण्ड मिश्रित 
भगवान श्री शेषनाथ मंदिर सीताकुण्ड मिश्रित 


    
    इस
तीर्थ में जो प्राणी स्नान करेगा उसे त्रैलोक्य के समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होगा जो इस अरण्य की इक्कीस योजन की पाक्षिक परिक्रमा कर होली पर्व स्नान करके गौ वृक्ष शय्या दान विप्रों को करेगा उसे त्रिलोक के तीर्थाटन का अक्षय पुण्य मिलेगा। इतना कहने के साथ इंद्र ने एवमस्तु कहा।

    यह सुनकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुई और बोली हे प्रभु आज मैं श्री मिश्रित तीर्थ महर्षि दधीचि के त्याग की अनूठी कथा सुनकर धन्य हो गई यह कथा मनोवांछित फल देने वाली है हे प्राणनाथ महर्षि दधीचि ने जिस प्रकार अपने देह का विसर्जन किया और कैसे उनकी अस्थियों से वज्र का निर्माण हुआ जिससे वृत्तासुर का वध संभव हुआ जानने की इच्छा है कृपया इसे भी वर्णित करें।

        भगवान शंकर बोले हे भद्रे! महर्षि दधीचि देव दर्शन पश्चात जिस समय प्राणायाम करने को उद्यत हुए तो मैं भी अपने भक्त के दर्शनों के लोभ का संवरण कर सका मैं भी ऋषि दधीचि आश्रम पर पहुंचा उस समय महर्षि दधीचि की पत्नी ने प्रणाम कर कहा हे प्रभु यह तो अब अपने परम पद को प्राप्त करने जा रहे हैं मैं इनके अभाव में जीवित नहीं रहना चाहती मैं भी इन्हीं के साथ प्रणोत्सर्ग करूंगी तब मैंने समझाया कि हे देवी तुम्हारे गर्भ में शिशु पल रहा है उसके जन्म के उपरांत ही आप कुछ निर्णय करना इस समय महर्षि के प्राणायाम में बाधा ना उत्पन्न करें तब गाभिस्थिनी ने शांति ग्रहण की। ऋषि दधीचि ने प्राणायाम करके ब्रह्मांड से प्राणोंत्सर्ग किया

     देवराज इंद्र ने पार्थिव शरीर को प्रथम गायों को देकर प्रार्थना की कि वह अपने मुख द्वारा अस्थियों से त्वचा मज्जा प्रथक कर दे तुम्हें किसी प्रकार का इस कार्य के लिए कोई पातक नहीं लगेगा।गायों के मुख द्वारा त्वचा मज्जा अस्थियों से प्रथक कर इन्द्र अस्थियां लेकर उष्ना नामक विश्वकर्मा को देकर वज्र निर्माण की प्रार्थना की।

        विश्वकर्मा ने सिर और पीठ की मेरु से वज्र का निर्माण करके इंद्र को प्रदान किया शेष अस्थि मज्जा गभिस्थिनि को दी गई।

        गभिस्थिनि ने अपने गर्भ में पल रहे शिशु को अपनी तपोबल से गर्भ से निकालकर उसे एक पीपल के वृक्ष की खोह में रखकर स्वयं उस अस्थि अवशेष लेकर सती हो गईं।

    हे पार्वती इंद्र ने वज्र पाकर साठि सहस्त्र वर्ष तक वृत्तासुर से युद्ध कर अंत में ((सामवेद पू. 2-5 एवं साम . . 5-8 तेरहवें ग्रंथ के अनुसार) वृत्तासुर अन्य दैत्यों का वध किया।

    इंद्र पुनः इंद्रासन प्राप्त कर राज्य करने लगे इधर दधीचि गभिस्थिनि का पीपल की खोह में रखा शिशु पीपल के फल खाकर बड़ा हुआ।पीपल के वृक्ष की टहनी से निकले हुए दूध को पीकर व फल खाकर बालक का पोषण हुआ इसीलिए इस बालक का नाम पिपलादि पड़ा।

     हे पार्वती या शिशु बड़ा होकर मेरा परम भक्त और वेद पाठी ब्राह्मण हुआ इसने अपने पिता माता की श्राद्ध हेतु गया जी से मिश्रित में सोलहवीं वेदी लाकर पिंड प्रदान किए और श्री सत्य नारायण व्रत कथा की रचना की।

        इतनी कथा सुन पार्वती जी बोली हे प्रभु इस पावन अरण्य में और कौन-कौन से कौतुक हुए वह भी हमें आप कृपा करके सुनाएं यह सुनकर भगवान शंकर बोले हे भद्रे श्री ऋषि दधीचि से इंद्र भगवान अपने वचनबद्धता के अनुसार तभी से अपने दलबल सहित इस पावन अरण्य की परिक्रमा फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष भर करके पूर्णिमा को होली दहन पर्व स्नान करने के पश्चात ही देवलोक को जाते हैं इस अरण्य में ही वेद व्यास ऋषि ने 18 पुराणों की रचना की।

        जब श्री रामचंद्र ने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया तब उसे इसी अरण्य से संपन्न किया इसी यज्ञ में श्री रामचंद्र जी के आमंत्रण पर महर्षि वाल्मीकि जी पधारे जब रामचंद्र जी से गुरु वशिष्ठ ने कहा कि अर्धांगिनी रहित यह आपका यज्ञ पूर्ण न हो सकेगा। तत्पश्चात राम जी ने स्वर्ण सीता प्रतिमा से गठबंधन करने लगे तो बाल्मीकि श्रीराम के इस कार्य को अवांछनीय कहकर सीता जी को जीवित अपने साथ बताकर चमत्कृत किया और बताया कि पुनः वनवास काल में श्री जानकी मेरे आश्रम (ब्रह्मावर्त ( भिठूर जिला कानपुर ) में रही हैं और मेरे साथ यज्ञ देखने आई हैं, अनुरोध करने पर श्री बाल्मीकि जी की आज्ञा पाकर जानकी जी ने यज्ञ में भाग लिया यज्ञ पूर्णाहुति के पश्चात जब श्री रामचंद्र जी ने पुनः सीता से अयोध्या चलने को कहा तो जानकी जी ने दुखी होकर कहा कि आपने मुझे कलंकिनी मानकर अयोध्या से निकाला है मैं अयोध्या वापस नहीं जाऊंगी आप के पुत्र लव और कुश हैं इन्हें साथ लेकर जाएं यह कहकर आर्तनाद से श्री जानकी जी बोली हे प्रथ्वी माता जो मैंने कोई पाप काया मन या वचन से किया हो तो मुझे अपनी गोद में कोई जगह मत दो अन्यथा हे माता मुझे अपनी गोद में स्थान दो तो पृथ्वी गर्जना कर फट गई और श्री जानकी जी स्वर्ण प्रतिमा सहित उसमें समा गई।(

        जब ऋषि दुर्वासा जी ने आकर्षण मंत्रों से श्री कुंती को दीक्षित किया तो कुंती ने उस आकर्षण मंत्रों से सूर्य मंत्र का परीक्षण इसी अरण्य में किया जिससे भगवान भास्कर अरण्य में आए और प्रभास क्षेत्र का उदय हुआ।

        मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी के रावण से जब ब्रह्म हत्या दोष के कारण हथेली में बाल उग आया था तो इसी प्रभास क्षेत्र में स्नान करने से उद्धार हुआ । आज इसे हत्याहरण तीर्थ जो जो जिला हरदोई में इसी अरण्य के अन्तर्गत आता है।

        कलिकाल आगमन पर एक समय देवगण कलिकाल प्रभाव से भयभीत होकर श्री ब्रह्मा जी के पास जाकर जप तप योग्य स्थान को पूछा तब ब्रह्माजी ने अपने मन से मनोवत चक्र उत्पन्न करके कहा हे देवगण  आप इस चक्र के साथ यात्रा करें यह तीनों लोकों में पावन भूमि पर स्थिर हो जाएगा आप वहीं पर तपस्या करना यह जहां स्थिर होगा वहां कलिकाल का प्रभाव व्याप्त ना होगा, हे पार्वती यह चक्र इसी अरण्य में आकर स्थित हुआ इस अरण्य में जप तप दान यज्ञ करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है यह अरण्य सभी सिद्धियों और मनवांछित फलों को देने वाला है जो  प्राणी कलिकाल में इस पावन अरण्य भूमि की श्रद्धा पूर्वक परिक्रमा कर यहां पितृ श्राद्ध कर श्री मिश्रित तीर्थ में स्नान कर गौ अन्न वृक्ष शैय्या दान करते हैं उनके पितृ चिरकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं और इस लोक में रहने वाले प्राणी संतान ऐश्वर्य को प्राप्त कर अच्छे पुण्य के अधिकारी होते हैं जो स्त्रियां मिश्रित तीर्थ में स्नान कर सीता कूप की प्रदक्षिणा कर सुहाग पिटारी स्वर्ण रजत युक्त लोटा डोरी वस्त्र का दान कर श्रद्धा पूर्वक इस श्री मिश्रित तीर्थ महात्म्य का श्रवण करती हैं उन्हें कोई कलंक नहीं लगता और संतान रहित स्त्रियों को शीघ्र प्रतिभावान सुंदर पुत्र की प्राप्ति होती है तथा उनका सुहाग अमर रहता है।

।।ॐ श्री महर्षि दधीचि देव्ये नमः।।

कथा के समापन के साथ हम आप सभी को सादर आमंत्रित करते हैं आप यहां पधारें तीर्थ स्नान करें मंदिर दर्शन कर पुण्य फल प्राप्त करें।

 


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  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है

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